पूरे चाँद की रात
कृष्ण चंदर
अप्रैल का महीना था. बादाम की डालियां फूलों से लद गई थीं और हवा में बर्फ़ीली ख़ुनकी के बावजूद बहार की लताफ़त आ गई थी. बुलंद-ओ-बाला तंगों के नीचे मख़मलीं दूब पर कहीं कहीं बर्फ़ के टुकड़े सपीद फूलों की तरह खिले हुए नज़र आ रहे थे. अगले माह तक ये सपीद फूल इसी दूब में जज़्ब हो जाएंगे और दूब का रंग गहरा सब्ज़ हो जाएगा और बादाम की शाख़ों पर हरे-हरे बादाम पुखराज के नगीनों की तरह झिलमिलाएंगे और नीलगूं पहाड़ों के चेहरों से कोहरा दूर होता जाएगा और इस झील के पुल के पार पगडंडी की ख़ाक मुलायम भेड़ों की जानी-पहचानी बा आ आ आ से झनझना उठेगी और फिर इन बुलंद-ओ-बाला तंगों के नीचे चरवाहे भेड़ों के जिस्मों से सर्दियों की पली हुई मोटी-मोटी गफ़ ऊन गरमियों में कुतरते जाएंगे और गीत गाते जाएंगे.
लेकिन अभी अप्रैल का महीना था. अभी तंगों पर पत्तियां ना फूटी थीं. अभी पहाड़ों पर बर्फ़ का कोहरा था. अभी पगडंडी का सीना भेड़ों की आवाज़ से गूंजा ना था. अभी सम्मल की झील पर कंवल के चराग़ रौशन ना हुए थे. झील का गहरा सब्ज़ पानी अपने सीने के अंदर उन लाखों रूपों को छुपाए बैठा था जो बहार की आमद पर यकायक उस की सतह पर एक मासूम और बेलौस हंसी की तरह खिल जाएंगे. पुल के किनारे किनारे बादाम के पेड़ों की शाख़ों पर शगूफ़े चमकने लगे थे. अप्रैल में ज़मिस्तान की आख़िरी शब में जब बादाम के फूल जागते हैं और बहार के नक़ीब बन कर झील के पानी में अपनी किश्तियां तैराते हैं. फूलों के नन्हे नन्हे शिकारे सतह-ए-आब पर रक़्सां-ओ-लर्ज़ां बहार की आमद के मुंतज़िर हैं. पुल के जंगले का सहारा लेकर में एक अरसे से उस का इंतज़ार कर रहा था.
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सै पहर ख़त्म हो गई. शाम आ गई, झील वलर को जाने वाले हाऊस बोट, पुल की संगलाख़ी मेहराबों के बीच में से गुज़र गए और अब वो उफ़ुक़ की लकीर पर काग़ज़ की नाव की तरह कमज़ोर और बेबस नज़र आ रहे थे. शाम का क़िरमज़ी रंग आसमान के इस किनारे से उस किनारे तक फैलता गया और क़िरमज़ी से सुरमई और सुरमई से सियाह होता गया. हत्ता कि बादाम के पेड़ों की क़तार की ओट में पगडंडी भी सो गई और फिर रात के सन्नाटे में पहला तारा किसी मुसाफ़िर के गीत की तरह चमक उठा. हवा की ख़ुनकी तेज़-तर होती गई और नथने उस के बर्फ़ीले लम्स से सुन्न हो गए.
और फिर चांद निकल आया. और फिर वो आ गई.
तेज़-तेज़ क़दमों से चलती हुई, बल्कि पगडंडी के ढलान पर दौड़ती हुई, वो बिल्ककुल मेरे क़रीब आ के रुक गई. उसने आहिस्ता से कहा.
हाय!
उस की सांस तेज़ी से चल रही थी, फिर रुक जाती, फिर तेज़ी से चलने लगती. उसने मेरे शाने को अपनी उंगलियों से छुवा और फिर अपना सर वहां रख दिया और उस के गहरे सियाह बालों का परेशान घना जंगल दूर तक मेरी रूह के अंदर फैलता चला गया और मैंने उस से कहा “सै पहर से तुम्हारा इंतज़ार कर रहा हूं.”
उसने हंसकर कहा,“अब रात हो गई है, बड़ी अच्छी रात है.”
उसने अपना कमज़ोर नन्हा छोटा सा हाथ मेरे दूसरे शाने पर रख दिया और जैसे बादाम के फूलों से भरी शाख़ झुक कर मेरे कंधे पर सो गई.
देर तक वो ख़ामोश रही. देर तक मैं ख़ामोश रहा. फिर वो आप ही आप हंसी, बोली,“अब्बा मेरे पगडंडी के मोड़ तक मेरे साथ आए थे, क्यों कि मैंने कहा, मुझे डर लगता है. आज मुझे अपनी सहेली रज्जो के घर सोना है, सोना नहीं जागना है. क्योंकि बादाम के पहले शगूफ़ों की ख़ुशी में हम सब सहेलियां रात-भर जागेंगी और गीत गाएंगी और मैं तो सै पहर से तैयारी कर रही थी, इधर आने की. लेकिन धान साफ़ करना था और कपड़ों का ये जोड़ा जो कल धोया था आज सूखा ना था. उसे आग पर सुखाया और अम्मां जंगल से लकड़ियां चुनने गई थीं वो अभी आई ना थीं और जब तक वो ना आतीं मैं मक्की के भुट्टे और ख़ुश्क ख़ूबानियां और जरवालो तुम्हारे लिए कैसे ला सकती हूं. देखो ये सब कुछ लाई हूं तुम्हारे लिए. हाय तुम सच-मुच ख़फ़ा खड़े हो. मेरी तरफ़ देखो में आ गई हूं. आज पूरे चांद की रात है. आओ किनारे लगी हुई कश्ती खोलें और झील की सैर करें.”
उसने मेरी आंखों में देखा और मैंने उस की मुहब्बत और हैरत में गुम पुतलीयों को देखा, जिनमें उस वक़्त चांद चमक रहा था और ये चांद मुझसे कह रहा था, जाओ कश्ती खोल के झील के पानी पर सैर करो. आज बादाम के पीले शगूफ़ों का मुसर्रत भरा त्यौहार है. आज उसने तुम्हारे लिए अपनी सहेलियों अपने अब्बा, अपनी नन्ही बहन और अपने बड़े भाई सबको फ़रेब में रखा है, क्योंकि आज पूरे चांद की रात है और बादाम के सपीद ख़ुश्क शगूफ़े बर्फ़ के गालों की तरह चारों तरफ़ फैले हुए हैं और कश्मीर के गीत उस की छातियों में बच्चे के दूध की तरह उमड़ आए हैं. उस की गर्दन में तुमने मोतियों की ये सत-लड़ी देखी. ये सुर्ख़ सत-लड़ी उस के गले में डाल दी और उस से कहा, “तो आज रात-भर जागेगी. आज कश्मीर की बहार की पहली रात है. आज तेरे गले में कश्मीर के गीत यूं खिलेंगे, जैसे चांदनी-रात में ज़ाफ़रान के फूल खिलते हैं. ये सुर्ख़ सत-लड़ी पहन ले.”
चांद ने ये सब कुछ उस की हैरान पुतलियों से झांक के देखा फिर यकायक कहीं किसी पेड़ पर एक बुलबुल नग़मासरा हो उठी और कश्तियों में चिराग़ झिलमिलाने लगे और तंगों से परे बस्ती में गीतों की मद्धम सदा बुलंद हुई. गीत और बच्चों के क़हक़हे और मर्दों की भारी आवाज़ें और नन्हे बच्चों के रोने की मीठी सदाएं और छतों से ज़िंदगी का आहिस्ता-आहिस्ता सुलगता हुआ धुआं और शाम के खाने की महक, मछली और भात और कड़म के साग का नरम नमकीन और लतीफ़ ज़ायक़ा और पूरे चांद की रात का बहार आफ़रीं जोबन. मेरा ग़ुस्सा धुल गया. मैंने उस का हाथ अपने हाथ में ले लिया और उस से कहा,“आओ चलें झील पर.”
पुल गुज़र गया. पगडंडी गुज़र गई, बादाम के दरख़्तों की क़तार ख़त्म हो गई. तल्ला गुज़र गया. अब हम झील के किनारे किनारे चल रहे थे. झाड़ियों में मेंढक बोल रहे थे. मेंढक और झींगुर और बीनड़े, उनकी बेहंगम सदाओं का शोर भी एक नग़मा बन गया था. एक ख़्वाब-नाक सिम्फ़नी और सोई हुई झील के बीच में चांद की कश्ती खड़ी थी. साकिन चुप-चाप, मुहब्बत के इंतज़ार में, हज़ारों साल से इसी तरह खड़ी थी. मेरी और उस की मुहब्बत की मुन्तज़िर, तुम्हारी और तुम्हारे महबूब की मुस्कुराहट की मुन्तज़िर, इन्सान के इन्सान को चाहने की आरज़ू की मुन्तज़िर. ये पूरे चांद की हसीन पाकीज़ा रात किसी कुंवारी के बे छूए जिस्म की तरह मुहब्बत के मुक़द्दस लम्स की मुन्तज़िर है.
कश्ती ख़ूबानी के एक पेड़ से बंधी थी. जो बिलकुल झील के किनारे उगा था. यहां पर ज़मीन बहुत नर्म थी और चांदनी पत्तों की ओट से छनती हुई आ रही थी और मेंढक हौले-हौले गा रहे थे और झील का पानी बार-बार किनारे को चूमता जाता था और उस के चूमने की सदा बार-बार हमारे कानों में आ रही थी. मैंने दोनों हाथ, उस की कमर में डाल दिए और उसे ज़ोर-ज़ोर से अपने सीने से लगा लिया. झील का पानी बार-बार किनारे को चूम रहा था. पहले मैंने उस की आंखें चूमीं और झील की सतह पर लाखों कंवल खिल गए. फिर मैंने उस के रुख़्सार चूमे और नरम हवाओं के लतीफ़ झोंके यकायक बुलंद होके सदहा गीत गाने लगे. फिर मैंने उस के होंठ चूमे और लाखों मंदिरों, मस्जिदों और कलीसाओं में दुआओं का शोर बुलंद हुआ और ज़मीन के फूल और आसमान के तारे और हवाओं में उड़ने वाले बादल सब मिल के नाचने लगे. फिर मैंने उस की ठोढ़ी को चूमा और फिर उस की गर्दन के पेचो ख़म को, और कंवल खिलते खिलते सिमटते गए कलियों की तरह और गीत बुलंद हो हो के मद्धम होते गए और नाच धीमा पड़ता पड़ता रुक गया. अब वही मेंढक की आवाज़ थी. वही झील के नरम-नरम बोसे और कोई छाती से लगा सिसकियां ले रहा था.
मैंने आहिस्ता से कश्ती खोली. वो कश्ती में बैठ गई. मैंने चप्पू अपने हाथ में ले लिया और कश्ती को खे कर झील के मर्कज़ में ले गया. यहां कश्ती आप ही आप खड़ी हो गई. ना इधर बहती थी ना उधर. मैंने चप्पू उठा कर कश्ती में रख लिया. उसने पोटली खोली. उस में से जरवालो निकाल कर मुझे दिए. ख़ुद भी खाने लगी. जरवालो ख़ुशक थे और खट्टे मीठे.
वो बोली,‘‘ये पिछली बार के हैं.”
मैं जरवालो खाता रहा और उस की तरफ़ देखता रहा.
वो आहिस्ता से बोली. “पिछली बहार में तुम ना थे.”
पिछली बहार में, मैं ना था. और जरवालो के पेड़ फूलों से भर गए थे और ज़रा सी शाख़ हिलाने पर फूल टूट कर सतह-ए-ज़मीन पर मोतियों की तरह बिखर जाते थे. पिछली बहार में, मैं ना था और जर वालो के पेड़ फलों से लदे फंदे थे. सब्ज़ सब्ज़ जरवालो. सख़्त खट्टे जरवालो जो नमक मिर्च लगा के खाए जाते थे और ज़बान सी सी करती थी और नाक बहने लगती थी और फिर भी खट्टे जरवालो खाए जाते थे. पिछली बहार में, मैं ना था. और ये सब्ज़ सब्ज़ जरवालो, पक के पीले और सुनहरे और सुर्ख़ होते गए और डाल डाल में मुसर्रत के सुर्ख़ शगूफ़े झूम रहे थे और मुसर्रत भरी आंखें, चमकती हुई मासूम आंखें उन्हें झूमता हुआ देखकर रक़्स सा करने लगतीं. पिछली बहार में, मैं ना था और सुर्ख़ सुर्ख़ जरवालो ख़ूबसूरत हाथों ने इकट्ठे कर लिए. ख़ूबसूरत लबों ने उनका ताज़ा रस चूसा और उन्हें अपने घर की छत पर ले जाकर सूखने के लिए रख दिया कि जब ये जरवालो सूख जाएंगे, जब एक बहार गुज़र जाएगी और दूसरी बहार आने को होगी तो मैं आऊंगा और उनकी लज़्ज़त से लुत्फ़ अंदोज़ हो सकूंगा।
जरवालो खा के हमने ख़ुश्क ख़ूबानियां खाईं. ख़ूबानी पहले तो बहुत मीठी मालूम ना होती मगर जब दहन के लुआब में घुल जाती तो शहद-ओ-शकर का मज़ा देने लगतीं.
“नर्म नर्म बहुत मीठी हैं ये.” मैंने कहा. उसने एक गुठली को दांतों से तोड़ा और ख़ूबानी का बीज निकाल के मुझे दिया. “खाओ.”
बीज बादाम की तरह मीठा था.
“ऐसी ख़ूबानियां मैंने कभी नहीं खाईं.”
उसने कहा. “ये हमारे आंगन का पेड़ है. हमारे हां ख़ूबानी का एक ही पेड़ है. मगर इतनी बड़ी और सुर्ख़ और मीठी ख़ूबानियां होती हैं उस की कि मैं क्या कहूं. जब ख़ूबानियां पक जाती हैं तो मेरी सारी सहेलियां इकट्ठी हो जाती हैं और ख़ूबानियां खिलाने को कहती हैं. पिछली बिहार में…”
और मैंने सोचा, पिछली बिहार में, मैं ना था. मगर ख़ूबानी का पेड़ आंगन में इसी तरह खड़ा था. पिछली बहार में वो नाज़ुक नाज़ुक पत्तों से भर गया था. फिर उनमें कच्ची ख़ूबानियों के सब्ज़ और नोकीले फल लगे थे. अभी इन ख़ूबानियों में गुठली पैदा ना हुई थी और ये कच्चे खट्टे फल दोपहर के खाने के साथ चटनी का काम देते थे. पिछली बहार में, मैं ना था और फिर इन ख़ूबानियों में गुठलियां पैदा हो गई थीं और ख़ूबानियों का रंग हल्का सुनहरा होने लगा था और गुठलियों के अंदर नरम नरम बीज अपने ज़ायक़े में सब्ज़ बादामों को भी मात करते थे. पिछली बहार में, मैं ना था. और ये सुर्ख़ सुर्ख़ ख़ूबानियां जो अपनी रंगत में कश्मीरी दोशीज़ाओं की तरह सबीह थीं और ऐसी ही रसदार. सब्ज़ सब्ज़ पत्तों के झूमरों से झांकती नज़र आती थीं. फिर अलहड़ लड़कियां आंगन में नाचने लगतीं और छोटा भाई दरख़्त के ऊपर चढ़ गया और ख़ूबानियां तोड़ तोड़ कर अपनी बहन की सहेलियों के लिए फेंकता गया. कितनी मीठी थीं, वो पिछली बहार की रस-भरी ख़ूबानियां. जब मैं ना था…
क्रमश:
(सुनिए पूरी कहानी ‘स्टोरीबॉक्स‘ में। सुनने के लिए Spotify या Apple podcast पर सर्च करें Storybox with Jamshed Qamar Siddiqui)