जिंदगी ने निधि अग्रवाल को सभी नेमतें बख्शीं. समझदार फैमिली, उच्च शिक्षा, खूबसूरती, केयरिंग और कमाऊ पति, एक चांद सा बेटा और एक अच्छा करियर… वो सबकुछ जिसके लिए लोग दुआएं मांगते हैं. लेकिन एक वक्त ऐसा भी आया जब उनपर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा. उन्हें ब्रेस्ट कैंसर हुआ जिसमें उनको एक ब्रेस्ट हटाकर फिर कीमो के जरिये बचाया गया. पति को लाइलाज बीमारी हो गई और वो बिस्तर पर आ गए. हंसती खेलती जिंदगी में हताशा के बादल थे, लेकिन निधि ने विक्टिम नहीं सर्वाइवर बनना चुना. दर्द के समंदर में गोता लगाकर भी निधि एक मिसाल बन गईं. कैसे? ये जानने के लिए पढ़िए- निधि की पूरी कहानी, उन्हीं की जुबानीः-
By: मानसी मिश्रा
मैं निधि अग्रवाल कभी मेरी पहचान टॉम बॉय की थी. 1991 में शादी हुई तो पढ़ी-लिखी खूबसूरत बीवी के किरदार में आ गई. ये टैग खुद को मैंने नहीं दिए बल्कि जमाना देता था. वो जमाना जहां साहित्य-सिनेमा में औरत को जिस्मानी खूबसूरती से आंका जाना आम है. आंखों से लेकर जुल्फें, रंग, शरीर की बनावट तक सब कविताओं-गीतों में गाए जाते रहे हैं. यही सब मिलकर समाज की एक सोच बनती है जिसमें हम भी कहने लगते हैं कि फलां रेखा जैसी लगती है, फलां करीना-कटरीना जैसी है.
इसी तरह ब्रेस्ट भी औरत की खूबसूरती का एक हिस्सा बन जाते हैं. कभी आपने सोचा है कि अगर एक ब्रेस्ट काटने को कहा जाए तो कोई औरत कैसा महसूस करती होगी. लेकिन कैंसर ये मजबूरी साथ लेकर आता है. ब्रेस्ट कैंसर ने मुझे ये सब सोचना-समझना सिखाया. औरतों के मन को पढ़ना सिखाया. इसीलिए आज मैं ब्रेस्ट कैंसर से जूझ रही महिलाओं को समझा पाती हूं. मेरी कहानी साल 2014 में पूरी तरह हैप्पी मोड पर चल रही थी. अपनी कहानी के बारे में मैं और पहले से बताती हूं.
मेरा जन्म मध्यप्रदेश के भोपाल शहर में हुआ. माता-पिता ने बहुत नाज से पाला. हर सुख सुविधा मिली. भोपाल से ही मैंने एमएससी तक पढ़ाई की. इसके बाद पीएचडी में दाखिला लिया. साथ में एक कॉलेज में पढ़ाना भी शुरू कर दिया. लास्ट में जब वाइवा का समय आया, तभी मेरे लिए अतुल का रिश्ता आया. अतुल अग्रवाल यानी मेरे पति भारत पेट्रोलियम में एक अच्छे पद पर नौकरी करते थे. शादी तय हुई और वाइवा होने से पहले ही साल 1991 में मेरी शादी हो गई. शादी के बाद अतुल की फर्स्ट पोस्टिंग जबलपुर हुई. वहां हम एक साल रहे.
एक साल बाद ही दोबारा ट्रांसफर हुआ और हम लोग बॉम्बे शिफ्ट हो गए. जहां नवंबर 1992 में मैं मां बनी. मेरा बेटा आयुष हम दोनों की जिंदगी में खुशियों की बारिश लेकर आया. बेटा थोड़ा सा बड़ा हुआ तो मैं बॉम्बे में ड्रेस डिजाइनिंग की क्लास लेने लगी. एक बेटे के बाद भी मेरी फिटनेस और हंसमुख मिजाज, मस्तमौला रहने के कारण मेरी इमेज टॉम बॉय की बनी थी. ड्रेस डिजाइनिंग की पेशे में वैसे भी आप फिटनेस के प्रति अवेयर रहते ही रहते हैं. यहां मैं तीन साल रही और उसके बाद 1994 में हम पुणे शिफ्ट हो गए.
पुणे में मेरे पति का सबसे लंबा टेन्योर साढ़े पांच साल का रहा. इस दौरान मै Kenstar कंपनी के साथ माइक्रोवेव की क्लास लेती थी. इसी दौरान बॉम्बे के प्रभादेवी कैटरिंग कॉलेज से बेकिंग का कोर्स कर मैंने ब्रेड और बन आदि बेक करना सीखा. फिर इसके बाद साल 1998 में पति का लखनऊ ट्रांसफर हो गया. हम लोग लखनऊ आ गए. मेरी एक आदत थी कि मैं कभी घर पर खाली नहीं बैठ सकती थी. सो, यहां भी मैंने कुछ सीखने की सोची और स्टेन ग्लास का पूरा काम सीख डाला.
लखनऊ में पौने दो साल रहकर हम साल 2000 में यूपी के ही शहर झांसी में शिफ्ट हो गए. पति का ट्रांसफरेबल जॉब था तो हम लोग कहीं टिककर नहीं रह पाते थे. ये हमारे लिए जितना चैलेंजिंग होता था, उतना ही रोमांचक भी. खैर वहां से हम झांसी आए तो मैंने यहां स्टेन ग्लास का कमर्शियल काम शुरू कर दिया. अभी भी वहां मुझे सब जानते हैं. बहुत अच्छी गुडविल बनी. साल 2006 तक वहां काम किया और फिर ट्रांसफर की चिट्ठी आ गई.
इस बार भुवनेश्वर, ओडिशा ट्रांसफर हुआ. वहां हम स्टेन ग्लास का काम नहीं कर सकते थे. वहां की भाषा और जीवनशैली अलग थी. सबसे पहले वहां जाकर मैंने उड़िया भाषा लिखना-पढ़ना सीखा ताकि लोगों से कम्यूनिकेट कर सकूं. इस दौरान मैंने देखा कि वहां हैंडीक्राफ्ट का काम बहुत अच्छा था. सो मैंने वहां से हैंडीक्राफ्ट को समझकर फिर उसे देश के दूसरे शहरों में एक्सपोर्ट करना शुरू किया. इसके अलावा कुछ प्रदर्शनी भी लगाती थी. बता दूं कि अभी भी हमारी वहां 75 लोगों की टीम है, इनमें वो आर्टिस्ट हैं जो गरीब तबके से आते हैं. यहां मैंने साल 2011 में हुए इंटरनेशनल फेयर में ओडिशा गवर्नमेंट के लिए होम डेकोर डिजाइन किया था.
पति को न्यूरो बीमारी डिटेक्ट हुई
काम आगे बढ़ रहा था लेकिन तभी फिर से ट्रांसफर हो गया. हम दिल्ली आ गए. यहां सबकुछ ठीकठाक चल रहा था. आयुष की पढ़ाई भी बहुत अच्छी चल रही थी. मगर, उसी दौरान एक चीज मन को बहुत तोड़ने वाली हुई. ये था कि उसी साल मेरे हसबैंड को एक न्यूरो बीमारी डायग्नोज हो गई. कभी-कभी बातचीत में उनकी आवाज लड़खड़ा जाती थी. कई बार चलते-चलते वो खुद भी लड़खड़ा जाते थे. डॉक्टरों ने बताया कि उन्हें मल्टीपल सिस्टम एट्रॉफी है, ये बीमारी बहुत खतरनाक होती है जिसका अभी तक कोई इलाज नहीं है. मैं भीतर से काफी परेशान थी लेकिन पति का लगातार हौसला बढ़ा रही थी.
खैर हम दिल्ली आ गए थे. उधर, उनकी प्रॉब्लम बढ़ने लगी थी. आयुष का एडमिशन बिट्स पिलानी में हो गया था तो वो वहां पढ़ने चला गया. इसी दौरान एक ऐसा दौर भी आया जब अतुल की हालत अक्सर बिगड़ जाती थी. मुझे उनको लेकर बहुत स्ट्रेस रहने लगा था. मेरी जिंदगी में मेरे पति का बहुत बड़ा रोल रहा है. हम दोनों जहां जाते साथ ही जाते थे. भले ही हमारी शादी अरेंज मैरिज थी लेकिन हमारा प्यार एक मिसाल रहा है. मेरा अपने हसबैंड से अच्छा दोस्त कोई नहीं है. अतुल एक खुशमिजाज और एक्टिव पर्सन थे. अपनी कॉलेज की क्रिकेट टीम के कैप्टन थे. इसके साथ ही टेबल टेनिस और टेनिस बहुत अच्छा खेलते थे. वो अपनी बीमारी को बिल्कुल एक्सेप्ट नहीं कर पा रहे थे. उन्हें यही लगता था कि मुझे ये प्रॉब्लम क्यों हो रही.
एक वो दिन भी जब अचानक अतुल की हालत बहुत बिगड़ गई. उन्हें तत्काल अस्पताल लेकर जाना पड़ा. तब बेटा आयुष आईआईएम अहमदाबाद से एमबीए कर रहा था. इस बीमारी में उन्हें अचानक चोकिंग होने लगती थी. उस दिन पल्स और ब्रीथ सब चली गई. शरीर नीला पड़ गया. जबड़ा एकदम लॉक हो गया, ऐसे में मरीज को पूरा रिवाइव करना पडता है. हॉस्पिटल में उन्हें वेंटिलेटर में रखा गया और मैं ये बात बेटे को भी नहीं बता पाई क्योंकि उसके फाइनल एग्जाम चल रहे थे. खैर, उनकी हालत सुधरी और उन्हें लेकर घर आ गई.
वो दिन जब मैंने ब्रेस्ट में गांठ देखी
ये साल 2014 की बात है. मैं बाथरूम में नहा रही थी. नहाते-नहाते मैंने फील किया कि मेरे एक ब्रेस्ट में चने जैसी हार्ड हार्ड गांठ है. मुझे उसी समय लग गया था कि ये नॉर्मल नहीं है. मैं आज भी सोचती हूं कि ये क्यों हुआ. ये स्ट्रेस के कारण था या क्या था, अभी तक रीजन पता नहीं है. उस दौर में 2014 तक पति की प्रॉब्लम बढ़ने लगी थी. सबकुछ मुझे ही करना पड़ता था. बेटे को डिस्टर्ब नहीं करती थी. मुझे ऐसी कोई प्रॉब्लम भी नहीं थी, न ऐसे कोई सिम्प्टम थे. मेरा वजन भी मेरी हाइट 5 फीट दो इंच के हिसाब से 60 किलो के करीब था, जिसे ओवरवेट नहीं कहा जा सकता. उस समय तक अतुल ऑफिस जाते थे. मैंने उन्हें अपने मन की शंका और गांठ के बारे में बताया. इस पर अतुल ने कहा कि मुंबई में मेरे दोस्त डॉ संजय शर्मा को दिखाओ. डॉ संजय पहले टाटा मेमोरियल कैंसर हॉस्पिदटल में थे.
हम बॉम्बे पहुंचे. सारे चेकअप मेमोग्राम, क्लिैनिकल ब्रेस्ट एग्जाम, अल्ट्रासाउंड वगैरह कराया. तो वही हुआ जिसका अंदेशा था. मुझे ब्रेस्ट कैंसर डिटेक्ट हुआ था, जिसके बाद मुझे ऑपरेट करके ब्रेस्ट हटवाना था. ये सब इतना जल्दी जल्दी हुआ कि मैं कुछ रिएक्ट नहीं कर पा रही थी, न मुझमें बहुत डर था और न कोई और ऐसा भाव जो बहुत तीव्र हो. बस यही लगता था कि ब्रेस्ट कैंसर का तो इलाज हो जाता है. मेरी बीमारी इतनी बड़ी नहीं है, ब्रेस्ट कैंसर की अपेक्षा अतुल की बीमारी ज्यादा घातक है. ब्रेस्ट कैंसर के बारे में काफी पढ़ा हुआ था कि रिमूव करके ठीक किया जा सकता है. आगे मैंने डॉक्टर संजय से ही ऑपरेट कराने का प्लान किया.
फिर शुरू हुआ ब्रेस्ट कैंसर का ट्रीटमेंट
ससुराल में परिवार में बहुत से लोग डॉक्टर हैं तो उन्हें भी बहुत बड़ा झटका नहीं लगा था. मेरे परिवार वालों को भी मैंने समझाया. इसके बाद मेरी ब्रेस्ट कैंसर ट्रीटमेंट की यात्रा शुरू हुई.
मैं ऑपरेशन के लिए बॉम्बे गई थी तो OT की तरफ पैदल चलने लगी. इस पर स्टाफ नर्स ने कहा कि आप स्ट्रेचर पर लेट जाइए. मैंने कहा कि अरे ओटी सामने ही तो है, मैं चली जाती हूं. तभी डॉ संजय आए और मुझसे कहा कि अभी तुम पेशेंट हो लेट जाओ स्ट्रेचर पर. ऑपरेशन से पहले ही मैंने तय कर लिया था ब्रेस्ट रिमूव कराने के साथ ही मैं सिलिकॉन ट्रांसप्लांट करा लूंगी. इस तरह मेरा ऑपरेशन हुआ और मेरा सारा प्रोटोकॉल डॉ सुरेश अडवाणी ने बनाया. इसके बाद मैं फिर दिल्ली आ गई. सच बताऊं तो अपने से ज्यादा मुझे उस वक्त भी हसबैंड की ही प्रॉब्लम दिख रही थी कि उनको इलाज नहीं है. कहते हैं कि किसी लाइन के सामने एक बड़ी लाइन खींच दो तो पहली लाइन छोटी हो जाती है, ठीक वैसा ही मुझे लग रहा था. मेरे सामने पति की बीमारी एक बड़ी लाइन की तरह खिंची थी.
मैं उस वक्त खुद को लेकर बहुत पॉजिटिव थी. मैंने खुद डिसीजन लिया था कि साथ ही साथ इंप्लाट करा लूं ताकि ये न लगे कि मेरे एक ब्रेस्ट नहीं है. मैंने तो अपनी रिपोर्ट देखने के बाद ही तय कर लिया था कि ये वक्त आ तो गया है रोने से खत्म तो होगा नहीं. न मेरे टूट जाने पर कुछ भी सही हो जाता. इसलिए मैंने रोग को अपनाकर इलाज कराने को ही बेस्ट ऑप्शन समझा.
जब कीमो का सामना हुआ
ऑपरेशन कराकर दिल्ली आ गई थी और कुछ ही दिनों बाद मुझे फर्स्ट कीमो करानी थी. बेटा साल 2014 में बॉम्बे में ही जॉब करता थ. मुझे अकेले बॉम्बे जाकर एक छोटे ऑपरेशन के अलावा कीमो कराना था. इसके लिए मैंने पहले कीमो के बारे में पढ़ा. उसमें मुझे एक बात समझ आई कि 48 घंटे के बाद प्रॉब्लम शुरू होती है. मैंने इसीलिए ऐसी फ्लाइट कराई कि दिक्कत शुरू होने से पहले ही अपने घर आ जाऊं.
निधि के साथ निधि जा रही है
जब मैं बॉम्बे के लिए निकल रही थी तो कई लोगों ने पूछा कि कौन जा रहा है साथ में? मैंने कहा दो लोग. बोले कौन-कौन, मैंने कहा निधि के साथ निधि, यही सच था कि मेरे साथ मैं ही जा रही थी. खैर कीमो कराकर मैं वापस लौट आई. वैसे पहली कीमो में इतना ज्यादा नेगेटिव असर नहीं होता क्योंकि बॉडी उस वक्त मजबूत होती है. फिर भी कुछ ही दिनों में बाल झड़ने शुरू हो गए थे. अब आया सेकेंड कीमो का नंबर, अब वो भी कराया. लेकिन सेकेंड के बाद मुझे बहुत ज्यादा दिक्कत आई. मैं पूरी की पूरी रात बैठी रहती थी. कभी लूज मोशन तो कभी कुछ. मुझे मन ही मन ये पता था कि इससे मेरा रोग ठीक हो रहा है.
जब कराया मुंडन
इस दौरान मेरा एक-एक बाल गिर रहा था. मेरी फ्रेंड मेरे घर आई तो उसने मुझसे कहा कि चलो हबीब सैलून में चलते हैं. वहां मेरी फ्रेंड ने पूरा हेड शेव करा दिया. वहीं बाहर हल्दीराम की दुकान थी तो हम लोगों ने लड्डू खरीदे. उसने कहा कि आज तुम्हारा मुंडन हो गया. फिर घर आई तो मेरी मदर इन लॉ ने कढ़ी चावल बनाया और कहा कि तुम्हारे मुंडन को सेलिब्रेट कर रहे हैं. मैं एक बात बताऊं कि ट्रीटमेंट के दौर में आपको जो अपनों और दोस्तों से सहयोग मिलता है, वो बहुत बड़ी ताकत होता है. मुझे घर के साथ-साथ दोस्तों का बहुत सपोर्ट मिल रहा था. मेरे पूरे बाल जाने के बाद भी मैंने खुद को संभाले रखा. मेरे 6 कीमो साइकिल हुए, साथ में हार्मोनल ट्रीटमेंट भी चल रहा था. हार्मोन के 12 इंजेक्शन लगने थे. इस तरह नवंबर 2015 में कोर्स खत्म हुआ. अब मेरा कैंसर मेरे हौसले के सामने घुटने टेक चुका था.
कुछ अलग करने की सोची
मैं जिस दौर में अपना कीमो करा रही थी, मैंने दूसरी सर्वाइवर का कष्ट करीब से महसूस किया. मैं डे केयर में कीमो करा रही थी, मैंने वहां देखा कि किस तरह महिलाएं अपने नाखून काले होने और बाल गिरने से परेशान थीं. उस दौरान मैं कुछ ब्यूटी प्रोडक्ट बना रही थी जो मैं उन लोगों को भी देती थी. अपनी कीमो पूरी होने के बाद मैंने एक ब्लिपस फाउंडेशन बनाया जिसके जरिये मैं इन पीड़िताओं की मदद करती थी. अभी दिल्ली और भोपाल में हमारा फाउंडेशन काफी अच्छा चल रहा है. आज जब मैं पीछे मुड़कर देखती हूं तो सोचती हूं कि बिंदास बेधड़क जीने वाली एक औरत इस तकलीफ से कैसे लड़ी होगी. पति की बीमारी और कीमो थेरेपी का दर्द कैसे झेला होगा, इस पर मुझे एक ही जवाब मेरे भीतर से मिलता है कि ये मेरी विल पॉवर और मेंटल स्ट्रेंथ थी जिसे मैंने कभी टूटने नहीं दिया. अगर इंसान विपरीत समय में भी पॉजिटिव रहता है तो वो कुछ भी झेल सकता है. आज मैं ब्रेस्ट कैंसर सर्वाइवर को काउंसिलिंग देती हूं और मैक्स हॉस्पिभटल के साथ एसोसिएटेड हूं.
आज भी मेरा घर खुली जेल है
आज भी मेरी पॉजिटिविटी ही मुझे संबल देती है. मेरे पति साल 2017 से बेड रिडेन हैं. अगर कोई मेरे घर आता है तो वो भावुक हो जाता है. ये एक खुली जेल है जहां हर कदम पर प्रोटोकॉल लागू है. घर में आप न जोर से हंस सकते हैं, न तेज आवाज में बात कर सकते हैं, न म्यूजिक सुन सकते हैं, न टीवी ही देख सकते हैं फिर भी यहां बहुत पॉजिटिव वाइब्स हैं. मेरे पति ज्यादा शोरगुल बर्दाश्त नहीं कर सकते. वो पैनिक हो जाते हैं, कभी रोना और कभी हंसना शुरू कर देते हैं. पत्नियां अक्सर अपनी तकलीफ पर पति पर इमोशनल डिपेंड हो जाती हैं, लेकिन मेरे सामने ये रास्ता नहीं था. लेकिन मेरी बहू और बेटा हर कदम पर मेरा बहुत साथ देते हैं और हौसला बढ़ाते हैं. मुझे ताकतवर रहकर अपने रोग से लड़ना था तो मैंने ऐसा ही किया. अब मैं अतुल की हमदर्द बनकर उनका साथ दे रही हूं और अपनी आखिरी सांस तक देती रहूंगी. कैंसर जैसी कोई बाधा मुझे तोड़ नहीं सकती. हम सभी को एक ही जिंदगी मिलती है तो वो हमारे ऊपर होता है कि हंसकर जियें या रोकर. मैंने हंसकर जीने की राह चुनी है.